Sanskriti Ki Satta by Dr. Dayanidhi Misra
न संस्कृति कोई भौतिक वस्तु है; न समाज; न इतिहास प्रदत्त। किसी विशिष्ट मानव समुदाय की सांस्कृतिक विशेषता उसके प्राणिक भौतिक रूप से अथवा व्यावहारिक संबंधों की रचना से निर्गलित होती है। वस्तुतः मानव समाज की रचना के सूत्र भी जिस विधि-विधान में संगृहीत होते हैं, उसका आधार मूल्यचेतना ही होती है। मूल्यचेतना निरपेक्षविधि यांत्रिक और अमानवीय होगी। इस मूल्यचेतना में ही संस्कृति का उत्स है। इस तरह संस्कृति अपने मूल रूप में ऐसी चेतना है, जो अनित्य व्यक्ति-सत्ता और ऐतिहासिक-सामाजिक सत्ता का अतिक्रमण करती है, किंतु जिसकी अभिदृष्टि से सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन मूल्यवान होते हैं। रचनानुभूति और अंतरंगसाधना से उच्छलित हो, संस्कृति एक संदेश के रूप में प्रवाहित होती है।
—इसी पुस्तक से
Language |
Hindi |
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