Dampatya Ki Dhoop-Chhanha by Mridula Sinha

दांपत्य के 60 वर्ष पूरे हुए। यात्रा समाप्त नहीं हुई हैं। शुरुआत में चार वर्ष सिर्फ हम दोनों थे। मैं विद्यार्थी, वे प्रोफेसर। प्रथम दो वर्ष हम लोग साथ नहीं रहते थे। प्रारंभ में उनका कॉलेज पश्चिम बंगाल में, मैं मुजफ्फरपुर में दो वर्ष के बाद ये 1960 के दिसंबर से मुजफ्फरपुर रामदयालु सिंह कॉलेज में पढ़ाने लगे। गणेश (सेवक) के सहयोग से श्री गणेश हुआ हमारे चौकाचुल्हे का। बोलने और सुनने में छह दशक बहुत लंबा लगता है। 60 वर्ष छह दशक से दस गुणा ।स्मृति को लंबा फैलाव देना होता हैं।
स्मृतियों को कागज पर उतारने के पूर्व बहुत मुश्किल लगता था, लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, बड़ी सहजता से लेखनी उन पलों को उकेरती गई, जिन्हें मैंने मनमस्तिष्क में सँवार रखा था। प्रकाशक को भेजने के पूर्व स्वयं पढ़ने बैठी तो ऐसा लगा कि पलों में बीत गए 60 वर्ष ।
ऐसा भी नहीं कि इनकी सारी बातेंव्यवहार मुझे अच्छे ही लगते रहे। आदत बन गई थीं चुप रह जाने की। कुछ देर बाद ही शांत मन से विश्लेषण करती। तब तक अपना गुस्सा भी शांत हो जाया करता था। कैसी जोड़ी रब ने बनाई थी। एक आत्मविश्वास से लबालब भरा हुआ, दूसरी ने आत्मविश्वास लाने में 60 वर्ष बिता दिया। अब भी अपने पर पूर्ण विश्वास नहीं।
पति-पत्नी के बीच विचारों और व्यवहारों का भी घोल हो जाता हैं। कुछ दिनों बाद छाँटना मुश्किल कि कौन सा विचार किसका हैं। यही तो दांपत्य हैं। यहीं रूप हैं। अर्धनारीश्वर का।

भारतीय संस्कृति में सौ वर्ष की आयु माने जानेवाले मनुष्य जीवन के आविर्भाव से लेकर अवसान तक के समय में सोलह संस्कारों की व्यवस्था की गई है। यों तो संस्कारों में विवाह का स्थान पंद्रहवें संस्कार के स्थान पर आता है, इसके पूर्व के चौदह संस्कारों की गणना सही मायने में जीवन की तैयारी के संस्कार हैं। इसलिए कि विवाह की आयु (शास्त्रों के अनुसार 25 वर्ष) तक पहुँचते-पहुँचते युवक और युवतियों के शरीर, मन और बुद्धि परिपक्व होते हैं। वे विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर अपने सांसारिक जीवन को आगे बढ़ाते हैं।
वैवाहिक जीवन के संचालक तत्वों पर गहराई से विचार करते हुए लेखिका के मन में दांपत्य की तुलना दलहन (मूग, चना, अरहर, मटर, मसूर) के एक दाने से करना शतप्रतिशत उचित लगा। दलहन के दाने के ऊपर जो छिलका (आवरण) हैं, वही अंदर के दो दलों को बाँधकर रखता हैं। जब तक वह आवरण हैं, तभी तक दोनों दल आपस में संबद्ध रहते हैं। उनमें जीवनीशक्ति होती हैं। वे एक से अनेक हो ही सकते हैं, उनमें उच्च विचारों की भी उत्पत्ति और संवर्धन होता हैं। ज्योंही छिलका (दांपत्य) अलग कर दिया जाता है, उनकी उर्वराशक्ति समाप्त हो जाती है। दलहन के दाने अंकुरित भी नहीं हो सकते और पति-पत्नी अपनी पारिवारिकसामाजिक जिम्मेदारियाँ भलीभाँति पूरी नहीं कर सकते।
प्रेम, स्नेह, पारस्परिकता, समन्वय, निष्ठा, समर्पण, विश्वास जैसे तत्वों से जीवन के अटूट बंधन ‘दांपत्य’ को अभिसिंचित किया जा सकता है। सफल दांपत्य जीवन के गुरुमंत्र बताती पठनीय कृति ।

Language

Hindi

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