Loktantra by Brahma Dutt Awasthi
‘लोकतंत्र’ लोक के जिस हिमालयी शिखर से निकला था, उसका प्रवाह पश्चिम की भोगवादी स्वार्थपरक दृष्टि में इतना छितराया कि उसका मूल-प्रवाह कौन सा है—पहचानना मुश्किल हो गया है, जो अब नाम लेने को तो लोकतंत्र है, पर वास्तव में यह उस गंदी नाली से भी बदतर है, जो प्रवाहहीन होकर सड़ाँध मार रही है।
प्रवाहहीन-लोक लोकतंत्र को गति कैसे प्रदान करे? इसके लिए तो लोक को स्वतःस्फूर्त होकर स्वयं सिद्धमना बन भागीरथ प्रयास करना होगा।
‘लोकतंत्र’ शीर्षक यह पुस्तक भूमि, जन और संस्कृति के भोगे हुए यथार्थ और वर्तमान लोकतंत्र के पड़े हुए कुठाराघातों से आंदोलित मन की पीड़ा का वह ज्वालामुखी विस्फोट है, जिससे निकले शब्द रूपी प्रक्षिप्त-पदार्थ (Pyroclast) देखने में तो बिना लय, ताल, आकार, क्रम के प्रतीत होते हैं परंतु उनका संगीत शुद्ध प्राकृतिक दैवजनित है, जिसको सुनना-समझना सृष्टि की आत्मा को आत्मसात् करने जैसा होता है, जहाँ कुछ भी अव्यवस्थित नहीं, सब प्राकृतिक रूप से लयबद्ध और तालबद्ध।
लोकतंत्र के इस संगीत को हम सभी महसूस कर आत्मसात् करें, जिससे लोक के आँगन में सृजन और स्व-विकास की स्वर-लहरियाँ फिर से गूँज उठें और हम विजयी हो ‘पाञ्चजन्य’ का नाद कर सकें।
Language |
Hindi |
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