Madhuchhand by Usha Shrivastav
मधुछंद—उषा श्रीवास्तव
हँसी की इन लहरों के बीच
कमल किस दुःख का खिलता है,
मानते हो जिसको तुम शील
विवशताओं में पलता है।
हृदय की उठती हुई वह आग,
फूटती अरुणाभा जैसी,
दिवस के उज्ज्वल माथे पर
तिलक की पावन आभा सी
हृदय में ही घुटकर रह गई,
बन गई मेरा चिर अभिशाप,
घेर ज्यों पुण्यों को छा जाए
किसी प्राचीन जनम का शाप।
—इसी पुस्तक से
उषा की कविताएँ आत्मपरक हैं। इनमें समर्पण है, कोई गहरी टीस है, आकुल मन की पुकार है और प्रतिभा के अनुरूप प्राप्य न मिल पाने की कुंठा भी है। उषा ने विचार-प्रधान कुछ मुक्तक भी लिखे हैं। काश, उषा ने बी.ए. और एम.ए. में हिंदी ली होती।
अनुजावत् अपनी प्रिय शिष्या उषा को मेरा स्नेहाशीष है कि वह पूर्ण स्वस्थ रहकर कम-से-कम एक और कविता संग्रह हिंदी जगत् को दे सके। मुझे विश्वास है कि पाठकों की ओर से इस मौन साधिका को प्रोत्साहन मिलेगा।
—डॉ. रमानाथ त्रिपाठी की भूमिका से
Language |
Hindi |
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